Saturday, July 28, 2012

देशभक्ति


प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
देशभक्ति
अमर शहीद भगत सिंह का नाम किसी भी
 भारतीय
के लिए अपरिचित नहीं हैं। इतनी 

अल्प अवस्था में


उन्होंने देशभक्ति, आत्मबलिदान



का जो उदाहरण प्रस्तुत
अपने जीवन मे
किया, एक साधारण मनुष्य
उसकी 
कल्पना भी नहीं कर सकता।
साहस आदि सद्गुणो
भगत सिंह के महान कार्यों का योगदान अपने-आप
में अद्वितीय है, इसके
लिए भारत युग-युग तक
भगत 


सिंह का ऋणी रहेगा।





उनके व्यक्तित्व में अगाध अध्ययनशीलता तथा अद्भुत तर्कशक्ति का एक अपूर्व समन्वय था। उनके द्वारा
विभिन्न न्यायालयों में दिये गये भाषण इस तथ्य के साक्षी हैं। उनके व्यक्तित्व के इस गुण का अंतिम ध्येय
स्वतंत्रता ही था।
भारत के स्वर्णिम भविष्य के स्वप्नदृष्टा अमर शहीद भगत सिंह का आदर्श हम सभी देशवासियों को
सर्वदा प्रेरित करता रहेगा।

दो शब्द

अमर शहीद भगत सिंह का नाम किसी भी भारतीय के लिए अपरिचित नहीं है। इतनी अल्प अवस्था
में उन्होंने देशभक्ति, आत्मबलिदान, साहस आदि सद्गुणों का जो उहाहर प्रस्तुत किया, एक साधारण
मनुष्य अपने जीवन में उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। भारत राष्ट्र के निर्माण में भगत सिंह के महान
कार्यों का योगदान अपने-आप में अद्वितीय है, इसके लिए भारत युग-युग तक भगत सिंह का ऋणी रहेगा।

आखिर क्या बात थी कि इतनी कम अवस्था में भी इस वीर ने जीतेजी और बलिदान हो जाने के बाद भी
अंग्रेज सरकार का सुख-चैन हराम कर दिया था। वह कौन-सा कारण था कि उस समय के प्रसिद्ध नेताओं,
राजनीति के महारथियों को भी इस युवक के विषय में कुछ सोचने के लिए बाध्य बोना पड़ा था। और उस
समय भारतीय राजनीति में छाये हुए महात्मा गांधी जी को भी इस तेजस्वी व्यक्तित्व की शहादत पर
अलोचना का शिकार बनना पड़ा था ? निश्चय ही इस महान विभूति की स्वार्थरहित देशभक्ति, त्याग-
भावना तथा अद्वितीय साहस ही इसका कारण रहा होगा।

पंजाब में जन्म लेकर भी उनका दृष्टिकोण केवल पंजाब तक ही सीमित नहीं था। समस्त भारत भूमि
उनकी मातृभूमि थी, वे समस्त भारतीयों के अपने थे। एक सिख परिवार में जन्म लेकर भी वह केवल
शिख नहीं थे, वह एक सच्चे भारतीय, एक सच्चे मानव थे। एक सच्चे मनुष्य का दृष्टिकोण किसी धर्म,
जाति अथवा राज्य तक ही सीमित नहीं होता। उन्होंने सारे भारत के हितों को देखकर ही अपने जीवन
का बलिदान किया था। इतिहास में जब भगत सिंह का स्थान अपने-आप में अनूठा है।
इस पुस्तक के विषय में मौलिकता का दावा करना केवल आत्मप्रशंसा ही होगी। इसके लेखन में प्रसिद्ध
इतिहासकार डॉ.पट्टाभि सीतारमैया, प्रसिद्ध क्रांतिकारी एवं लेखन मन्मथनाम गुप्त, श्री के.के. खुल्लर,
मेजर गुरुदेव सिंह दयाल तथा श्री सुरेन्द्र चन्द्र श्रीवास्तव आदि विद्वानों तथा लेखकों की पुस्तकों से
सहायता ली गई है। अत: इन सबका आभार व्यक्त करना मेरा कर्तव्य है। पुस्तक में अपनी ओर से
प्रामाणिकता का पूरा ध्यान रखा गया है। फिर भी यदि इसमें कोई कमी रह गई हो तो मेरा ही दोष
कहा जाएगा। इसके लिए सुधी पाठकों से क्षमायाचना।

लेखक

(1)
प्रारम्भिक जीवन

संसार का प्रत्येक प्राणी जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, यह चक्र सदा से चलता
आया है और चलता रहेगा। न जाने कितने लोग इस दुनिया में आकर यहाँ से चले गये हैं, आज
कोई उनका नाम भी नहीं जानता। किन्तु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिनके इस दुनिया से चले
जाने पर भी वे अपने देश और समाज के दिलों से कभी नहीं जाते, अपने श्रेष्ठ कार्यों से उनका
नाम सदा-सदा के लिए अमर हो जाता है। ऐसा ही एक नाम शहीद भगत सिंह का भी है, जिन्हें
भारतवासी युगों तक नहीं भूल पाएँगे।

जन्म तथा बचपन:

भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर, 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर में बंगा गाँव में हुआ
था। (अब यह स्थान पाकिस्तान में चला गया है।) उनके जन्म के समय उनके पिता सरदार
किशन सिंह स्वतंत्रता की लड़ाई में भाग लेने के कारण सेंट्रल जेल में बन्द थे। सरदार किशन
सिंह के दो छोटे भाई थे- सरदार अजीत सिंह तथा सरदार स्वर्ण सिंह। इस समय सरदार
अजीत सिंह मांडले जेल में तथा सरदार स्वर्ण सिंह अपने बड़े भाई सरदार किशन सिंह के
साथ ही सजा भुगत रहे थे। इस प्रकार भगत सिंह के जन्म के समय उनके पिता तथा दोनों
चाचा देश की आजादी के लिए जेलों में बन्द थे। घर में उनकी माँ श्रीमति विद्यावती, दादा
अर्जुन सिंह तथा दादी जयकौर थीं। किन्तु बालक भगत सिंह का जन्म ही शुभ था अथवा
दिन ही अच्छे आ गये थे कि उनके जन्म के तीसरे ही दिन उसके पिता सरदार किशन सिंह
तथा सरदार स्वर्ण सिंह जमानत पर छूट कर घर आ गये तथा लगभग इसी समय दूसरे
चाचा सरदार अजीत सिंह भी रिहा कर दिये गये। इस प्रकार उनके जन्म लेते ही घर में
यकायक खुशियों की बाहर आ गयी, अत: उनके जन्म को शुभ समझा गया।
इस भाग्यशाली बालक का नाम उनकी दादी ने भागा वाला अर्थात् अच्छे भाग्य वाला रखा।
इसी नाम के आधार पर उन्हें भगत सिंह कहा जाने लगा।
भगत सिंह अपने माता-पिता की दूसरी सन्तान थे। सरदार किशन सिंह के सबसे बड़े पुत्र का
नाम जगत सिंह था, जिसकी मृत्यु केवल ग्यारह वर्ष की छोटी अवस्था में ही हो गयी थी
जब वह पाँचवीं कक्षा में ही पढ़ता था। इस प्रकार पहले पुत्र की इतनी छोटी अवस्था में
मृत्यु हो जाने के कारण भगत सिंह को ही अपने माता-पिता की सबसे पहली सन्तान
माना जाता है। भगत सिंह के अलावा सरदार किशन सिंह के चार पुत्र तथा तीन पुत्रि
याँ और थीं। कुल मिलाकर उनके छ: पुत्र हुए थे तथा तीन पुत्रियाँ, जिनके नाम क्रमश:
इस प्रकार हैं- जगत सिंह, भगत सिंह, कुलवीर सिंह, कुलतार सिंह, राजेन्द्र सिंह,
रणवीर सिंह, बीबी अमर कौर, बीबी प्रकाशकौर (सुमित्रा) तथा बीबी शकुन्तला।

देशप्रेम की शिक्षा भगत सिंह को अपने परिवार से विरासत में मिली थी। उनके दादा
सरदार अर्जुन सिंह भी अंग्रेज सरकार के कट्टर विरोधी थे। यह वह समय था, जब
अंग्रेजों के विरुद्ध एक भी शब्द बोलना मौत को बुलावा देने के समान था। इन दिनों
अंग्रेज की प्रशंसा करना लोग अपना कर्तव्य समझते थे, इसी से उन्हें सब प्रकार का
लाभ होता था। इसलिए सरदार अर्जुन सिंह के दो भाई सरदार बहादुर सिंह

था सरदार दिलबाग सिंह भी अंग्रेजों की खुशामद करना अपना धर्म समझते थे, जबकि
सरदार अर्जुन सिंह को अंग्रेजों से घृणा थी। अत: उनके दोनों भाई उन्हें मूर्ख समझते थे
। सरदार अर्जुन सिंह के तीन पुत्र थे- सरदार किशन सिंह, सरदार अजीत सिंह तथा
सरदार स्वर्ण सिंह। तीनों भाई अपने पिता के समान ही निडर और देशभक्त थे।

भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह पर भारत की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के
विरुद्ध आंदोलन में सरकार ने 42 बार राजनीतिक मुकदमे चलाये। उन्हें अपने जीवन
में लगभग ढाई वर्ष की कैद की सजा हुई तथा दो वर्ष नजरबन्द रखा गया। सरदा
र अजीर सिंह से अंग्रेज सरकार अत्यधिक भयभीत थी। अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलनों
मे भाग लेने के कारण जून 1907 में उन्हें भारत से दूर बर्मा की राजधानी रंगून भेज
दिया गया। भगत सिंह के जन्म के समय वह वहीं कैद में थे। कुछ ही महीनों बाद वहाँ
से रिहाँ होने के बाद वह ईरान, टर्की एवं आस्ट्रिया होते हुए जर्मनी पहुँचे। प्रथम
विश्वयुद्ध में जर्मनी के हार जाने के पर वह वहाँ से ब्राजील चले गये थे। सन् 1946
में मध्यावधि सरकार बनने पर पण्डित जवाहरलाल नेहरू के प्रयत्नों से पुन: भारत आये।

भगत सिंह के छोटे चाचा स्वर्ण सिंह भी अपने पिता और दोनों बड़े भाइयों के समान स्वतंत्रता
सेनानी थे। बड़े भाई किशन सिंह ने ‘भारत सोसायटी’ की स्थापना की थी। स्वर्ण सिंह भी
इसमें शामिल हो गये थे। उन्होंने राजद्रोह के मुकदमें में कैद की सजा हुई और लाहौर सेंट्रल
जेल में रखा गया। जहाँ उनसे कोल्हू में बैल की तरह काम लिया गया, जिससे उन्हें टी.बी.
हो गयी और केवल 23 वर्ष की आयु में ही उनकी मृत्यु हो गई।

इस प्रकार के परिवार में जन्म लेने के कारण भगत सिंह को देशभक्ति और स्वतंत्रता का
पाठ अनायास ही पढ़ने को मिला था। पूत के पाँव पालने में ही दिखाई पड़ते हैं या ‘होनहा
र बिरवान के होत चीकने पात’ यह कहावत भगत सिंह पर भी खरी उतरती है। उनकी आदतें
, उनकी बातें, उनका व्यवहार आदि बचपन से ही बड़ा अनोखा था। अभी वे केवल तीन ही
वर्ष के थे, एक दिन उनके पिता सरदार किशन सिंह उन्हें लेकर अपने मित्र श्री नन्दकिशोर
मेहता के पास उनके खेत में गये। बालक भगत सिंह ने मिट्टी के ढेरों पर छोटे-छोटे तिनके
लगा दिये। उनके इस कदम को देखकर श्री मेहता और बालक भगत सिंह के बीच जो
बातचीत हुई वह देखने योग्य है-

मेहता-तुम्हारा नाम क्या है ?
भगत सिंह-भगत सिंह।
मेहता- तुम क्या करते हो ?
भगत सिंह- मैं बन्दूकें बोता हूँ।
मेहता (आश्चर्य से)- बन्दूकें !
भगत सिंह- हाँ, बन्दूकें।
मेहता- ऐसा क्यों मेरे बच्चे ?
भगत सिंह- अपने देश को आजाद कराने के लिए।
मेहता- तुम्हारा धर्म क्या है ?
भगत सिंह- देश की सेवा करना।

इसी प्रकार उनके चाचा अजीत सिंह के विदेश चले जाने की घटना का भी बालक भगत
सिंह पर अमिट प्रभाव पड़ा। पति के वियोग में उनकी पत्नी बार-बार रोती रहती थी। उन्हें
रोते देख बालक भगत सिंह कहते थे, ‘‘चाची रो मत, जब मैं बड़ा हो जाऊँगा, तब मैं अंग्रेजों
को देश से बाहर भगा दूंगा और अपने चाचा को वापस ले आऊंगा।’’
केवल पाँच वर्ष की अवस्था में वह अपने स
ाथियों के साथ खेलते समय उन्हें दो दलों में बाँट लेते थे और एक दल दूसरे दल पर
आक्रमण करता था।
इस सब से स्पष्ट होता है कि देशभक्ति की भावना भगत सिंह में उनके बचपन में ही
कूट-कूट कर भरी थी। श्री नन्दकिशोर मेहता स्वयं राष्ट्रप्रेमी व्यक्ति थे।
बालक भगत सिंह से उपर्युक्त बातचीत होने पर उन्होंने सरदार किशन सिंह से कहा था,
‘‘भाई तुम बड़े भाग्यवान हो। तुम्हारे घर में एक महान आत्मा ने जन्म लिया है। मेरा
आशीर्वाद है कि यह बालक आपके लिए नाम पैदा करे और सारे विश्व में प्रसिद्ध हो।
इस नाम राष्ट्र के इतिहास में अजर-अमर रहेगा।’’ वास्तव में समय आने पर श्री मेहता
की यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई।

शिक्षा:

चार-पाँच की अवस्था में भगत सिंह का नाम बंगा गांव के जिला बोर्ड प्राइमरी स्कूल में
लिखाया गया। वह अपने बड़े भाई के साथ पढ़ने जाने लगे। स्कूल में वह सभी साथियों
प्रिय थे। सभी विद्यार्थी उनके साथ मित्रता करना चाहते थे। भगत सिंह स्वयं भी सभी
विद्यार्थियों को अपना मित्र बना लेते थे। उनके मित्रों को उनसे कितना प्रेम था, इस
बात का पता इससे लगता है कि अनेक बार उनके मित्र उन्हें कन्धों पर बिठाकर घर
तक छोड़ जाते थे, किन्तु भगत सिंह की आदतें बचपन से ही अनोखी थीं।
जिस अवस्था में बच्चों को खेलना-कूदना या पढ़ना अच्छा लगता है, उस अवस्था में
उनका मन न जाने क्या-क्या सोचता रहता था, कहाँ-कहाँ भटकता रहता था। स्कूल
में तंग कमरों में बैठे रहना उन्हें बड़ा उबाऊ लगता था, वह कक्षा छोड़कर खुले मैदानों
में घूमने निकल जाते। कल-कल करती नदियाँ, चहचहाते पक्षी, धीरे-धीरे बहने वाली
हवा उनके मन को मोह लेती थी। बड़े भाई जगत सिंह बालक भगत सिंह को कक्षा
में नदारद पाकर उन्हें ढूढ़ने जाते और देखते कि वह खुले मैदान में बैठे हुए हैं।
जगत सिंह कहते- ‘‘तू यहां क्या कर रहा है ? वहाँ गुरुजी पढ़ा रहे हैं। चल उठ् !’’
मुस्कराते हुए बालक भगत सिंह उत्तर देते- ‘‘मुझे यहीं अच्छा लगता है।’’
‘‘तू यहां क्या करता है ?’’

‘‘कुछ नहीं, बस चुपचाप मैदान को देखता रहता हूँ।

ईश्‍वर को नहीं मानते थे शहीद-ए-आजम भगत सिंह


शहीद-ए-आजम भगत सिंह की जयंती पर हम उनके जीवन के उस पहलु को छूने जा रहे हैं, जिसमें उन्‍होंने अपने नास्तिक होने का वर्णन किया है। भारत के स्‍वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह ईश्‍वर को नहीं मानते थे। वे आर्य समाजी रीति रिवाजों को मानने वाले परिवार से थे। अंग्रेज शासन में जुल्‍म, असमानता और शोषण को देख उनका ईश्‍वर के ऊपर से विश्‍वास उठ गया, जिसके बाद उन्‍होंने इन सबके खिलाफ लड़ाई को ही अपना धर्म मान लिया।

भगत सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, "मैं नास्तिक इसलिए हूं, क्‍योंकि मैं ईश्वर की सत्‍ता को नहीं मानता।" भगत सिंह ने उसके पीछे कई कारण भी बताये। सफलता और असफलता को सर्वशक्तिमान ईश्वर के हाथ में बताए जाने पर शहीद ए आजम ने जवाब दिया, "तुम्हारा रास्ता अकर्मण्यता का है। यह रास्ता किस्मत की घुट्टी पिलाकर देश के नौजवानों को अकर्मण्य बनाने का है। यह कभी भी मेरा रास्ता नहीं हो सकता। इस दुनिया को मिथ्या बताने वाले और इस देश को परछाई या मायाजाल समझने वाले कभी दुनिया की भलाई या इस देश की आजादी के लिए सत्यनिष्ठा से नहीं लड़ सकते। भगत सिंह ने आगे कहा कि जो मिथ्या और परछाई हो उसके लिए संघर्ष कैसा। मेरा देश तो एक जीवित और हसीन हकीकत है तथा मैं इसे मुहब्बत करता हूं।"

मित्रा फणींद्र के यह कहने पर कि इस धरती को स्वर्ग बनाने कितने मसीहा आए और हारकर चले गए। अब तुम आए हो सो दो चार दिन में तुम्हारे हौसलों का भी पता चल जाएगा। भगत सिंह ने जवाब दिया, "सकता है मेरा जीवन चार दिन का हो, लेकिन मेरे हौसले आखिरी सांस तक मेरा साथ नहीं छोड़ेंगे। इसका मुझे यकीन है। भगत सिंह ने अपने नास्तिक होने की वजह बताते हुए कहा कि आप सर्वशक्तिमान भगवान की बात करते हैं। मैं पूछता हूं कि सर्वाधिक शक्तिशाली होकर भी भगवान गुलामी, शोषण, अन्याय, अत्याचार, भूख, गरीबी, असमानता, महामारी, हिंसा और युद्ध का अंत क्यों नहीं कर देते? और यदि कल मैं नहीं भी रहा तो तब भी मेरे हौसले देश के हौसले बनकर साम्राज्यवादी शोषकों के खात्मे के लिए उनका पीछा करते रहेंगे। मुझको अपने देश के भविष्य पर यकीन है।

भगत सिंह ने आगे कहा, "हर बात के लिए ईश्वर की ओर ताकना भाग्यवाद और निराशावाद है। भाग्यवाद कर्म से भागने का रास्ता है। यह निर्बल, कायर और पलायनवादी व्यक्तियों की आखिरी शरण है।"

उन्होंने अपनी लेखनी से स्पष्ट किया है कि क्रांति से हमारा मतलब अन्याय पर टिकी वर्तमान व्यवस्था को बदलने से है। पिस्तौल और बम इनकलाब नहीं लाते, बल्कि इनकलाब की तलवार तो विचारों की सान पर तेज होती है। भगत सिंह ने लाहौर जेल में अपने द्वारा लिखी गई डायरी में भी अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं को रेखांकित किया है। क्रांति के लिए रक्त संघर्ष आवश्यक नहीं है और न ही इसमें व्यक्तिगत प्रति हिंसा का कोई स्थान है। भगत सिंह ने कहा है कि लोगों को समझाना पड़ेगा कि भारतीय क्रांति क्या होगी। इसका मतलब केवल मलिकों की तब्दीली से नहीं, बल्कि एक नयी व्यवस्था कायम करने से होगा। इन्‍हीं बातों के साथ भगत सिंह को वनइंडिया का नमन।

शहीद की मौत पर आज भी सवाल


 इतने सालों बाद भी उनकी मौत से जुड़े कई सवाल अनसुलझे हैं। 23 मार्च 1931 को 23 वर्षीय क्रांतिकारी भगत सिंह को उनके दो मित्रों सुखदेव व राजगुरु के साथ फांसी पर लटका दिया गया था। इसके साथ ही पूरे देश में आजादी की ख्वाहिश और भी भड़क गई थी।

दरअसल भगत सिंह को फांसी 24 मार्च को दी जानी थी, लेकिन जनविद्रोह के डर से ब्रिटिश हुकूमत ने रातों-रात फांसी की तारीख बदलकर उसे 23 मार्च कर दिया। क्रांतिकारियों के इतिहास पर लंबे समय से काम कर रहे सुधीर विद्यार्थी का कहना है, 'ब्रिटिश शासन ने तत्कालीन अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का भी उल्लंघन किया था, समय से पहले फांसी दिए जाने की यह शायद अपने किस्म की पहली घटना थी।' सिर्फ इतना ही नही स्वंत्रता आंदोलन में शामिल तत्कालीन बड़े नेताओं ने भगत सिंह को सजा सुनाए जाने के दौरान चुप्पी साध ली थी।

आज भी यह सवाल उठता है कि भगत सिंह को सजा-ए-मौत सुनाए जाने के ब्रिटिश शासन के फैसले को अपना मूक समर्थन देने की क्या वजह थी, क्या वे महज 23 वर्ष के भगत सिंह के तेवरों के डर गए थे?

लाहौर षड्यंत्र केस में जब भगत सिंह और राजगुरू तथा सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई तो देश में भर में एक लहर सी दौड़ गई थी। इसे दुनिया के कई बड़े अखबारों ने इसे सुर्खियां बनाया था। भगत सिंह और उनके साथियों को 24 मार्च को फांसी दी जानी थी पर उससे एक दिन पहले ही उन्हें फांसी दे दी गई।

खास तौर पर गांधी का रुख भगत सिंह के प्रति काफी विवादास्पद रहा। बिपिन चंद्र द्वारा लिखी गई भगत सिंह की जीवनी में गांधी की वह टिप्पणी दर्ज है जब उन्होंने कहा था, 'मैंने भगत सिंह को कई बार लाहौर में एक विद्यार्थी के रूप में देखा। मैं उसकी विशेषताओं को शब्दों में बयां नहीं कर सकता। उसकी देशभक्ति और भारत के लिए उसका अगाध प्रेम अतुलनीय है। लेकिन इस युवक ने अपने असाधारण साहस का दुरुपयोग किया। मैं भगत और उसके साथी देशभक्तों को पूरा सम्मान देता हूं। साथ ही देश के युवाओं को आगाह करता हूं कि वे उसके मार्ग पर न चलें।'

&13;गांधी जी की टिप्पणी के बारे में भगत सिंह के पौत्र भतीजे बाबर सिंह संधु के पुत्र यादविंदर सिंह ने कहा कि राष्ट्रपिता को ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी। यह टिप्पणी एक तरह से क्रांतिकारियों के योगदान को नकारने जैसी थी।

Tuesday, July 24, 2012

Monday, July 23, 2012

Saturday, July 21, 2012

अमृतवचन

धुल स्वंय अपमान सह लेती है और बदले में फूलो का उपहार देती है 
                                                                                          -रबिन्द्रनाथ टैगोर 
जब क्रोध आये तो उसके परिणाम पर विचार करो 
                                                                            कन्फ्युसियस 
किसी  कार्य को खूबसूरती से करने के लिए मनुष्य को उसे स्वंय करना चाहिए .
                                                                                                        नेपोलियन 
हमारी रूचि हमारे जीवन की परख है,हमारे मनुस्यत्व की पहचान है 
                                                                                           रस्किन 
धनि को अपने धन का मद रहता है .अंहकार रहता है ,परन्तु गरीबो की झोपड़ी में आमद और अहंकार के लिए स्थान नहीं रहता 
                                             प्रेमचंद 
एकता में रहना ही महान आत्माओं का भाग्य है।
                                                                 शोपेनहार 
ईर्ष्यालु   मनुष्य  स्वंय ही इर्श्यार्गिनी में जला करता है ,उसे और जलाना ब्यर्थ है. 
     शादी