Saturday, July 28, 2012

शहीद की मौत पर आज भी सवाल


 इतने सालों बाद भी उनकी मौत से जुड़े कई सवाल अनसुलझे हैं। 23 मार्च 1931 को 23 वर्षीय क्रांतिकारी भगत सिंह को उनके दो मित्रों सुखदेव व राजगुरु के साथ फांसी पर लटका दिया गया था। इसके साथ ही पूरे देश में आजादी की ख्वाहिश और भी भड़क गई थी।

दरअसल भगत सिंह को फांसी 24 मार्च को दी जानी थी, लेकिन जनविद्रोह के डर से ब्रिटिश हुकूमत ने रातों-रात फांसी की तारीख बदलकर उसे 23 मार्च कर दिया। क्रांतिकारियों के इतिहास पर लंबे समय से काम कर रहे सुधीर विद्यार्थी का कहना है, 'ब्रिटिश शासन ने तत्कालीन अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का भी उल्लंघन किया था, समय से पहले फांसी दिए जाने की यह शायद अपने किस्म की पहली घटना थी।' सिर्फ इतना ही नही स्वंत्रता आंदोलन में शामिल तत्कालीन बड़े नेताओं ने भगत सिंह को सजा सुनाए जाने के दौरान चुप्पी साध ली थी।

आज भी यह सवाल उठता है कि भगत सिंह को सजा-ए-मौत सुनाए जाने के ब्रिटिश शासन के फैसले को अपना मूक समर्थन देने की क्या वजह थी, क्या वे महज 23 वर्ष के भगत सिंह के तेवरों के डर गए थे?

लाहौर षड्यंत्र केस में जब भगत सिंह और राजगुरू तथा सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई तो देश में भर में एक लहर सी दौड़ गई थी। इसे दुनिया के कई बड़े अखबारों ने इसे सुर्खियां बनाया था। भगत सिंह और उनके साथियों को 24 मार्च को फांसी दी जानी थी पर उससे एक दिन पहले ही उन्हें फांसी दे दी गई।

खास तौर पर गांधी का रुख भगत सिंह के प्रति काफी विवादास्पद रहा। बिपिन चंद्र द्वारा लिखी गई भगत सिंह की जीवनी में गांधी की वह टिप्पणी दर्ज है जब उन्होंने कहा था, 'मैंने भगत सिंह को कई बार लाहौर में एक विद्यार्थी के रूप में देखा। मैं उसकी विशेषताओं को शब्दों में बयां नहीं कर सकता। उसकी देशभक्ति और भारत के लिए उसका अगाध प्रेम अतुलनीय है। लेकिन इस युवक ने अपने असाधारण साहस का दुरुपयोग किया। मैं भगत और उसके साथी देशभक्तों को पूरा सम्मान देता हूं। साथ ही देश के युवाओं को आगाह करता हूं कि वे उसके मार्ग पर न चलें।'

&13;गांधी जी की टिप्पणी के बारे में भगत सिंह के पौत्र भतीजे बाबर सिंह संधु के पुत्र यादविंदर सिंह ने कहा कि राष्ट्रपिता को ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी। यह टिप्पणी एक तरह से क्रांतिकारियों के योगदान को नकारने जैसी थी।

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