Saturday, June 1, 2013

आज उसका दिन है...













आज उसका दिन है...

पी. जी. कॉलेज का छोटा सा सेमिनार हाल भरा हुआ था. सम्मान समारोह कम प्रेस कॉन्फ्रेंस जैसा कुछ आर्गनाइज़ किया गया था. आगे की लाईनों में जिले के सारे पत्रकार, उनके फ़ोटोग्राफ़र और कॉलेज के गुरु जी लोग बैठे हुए थे, और पीछे तमाम छात्र-छात्राओं में ठसम-ठस मचा हुआ था. एक ही पंखा था जो चोंए-चोंए कर के चल रहा था, और सारा धकियाना-मुकियाना उसी के नीचे पहुँचने के लिए हो रहा था. 

चर्रर्र...की आवाज़ के साथ सामने डाईस के बगल वाला बड़ा सा दरवाज़ा खुला और उसमे से प्रिसिपल साहब, उनका चपरासी, अशोक गुरु जी और ग्रे पैंट में बाहर लटकी झक सफ़ेद शर्ट पहने एक लड़का अन्दर घुसे. इनके अन्दर आते ही हाल में ख़लबली मच गई. पीछे की भीड़ में से लोग उचक-उचक के देखने के चक्कर में एक-दूसरे का पैर धांगने और देह कचरने लगे.
"बेटा आप लोग आगे आ जाईये..सारी खिड़कियाँ खोल लीजिये और हाँ...इधर...कुर्सियों के बगल में इतनी जगह है तो..." अशोक गुरु जी ने व्यवस्था सम्हालते हुए कहा, तब जा के थोड़ी स्थिति सुधरी.

"मेरी आवाज़ वहाँ...पीछे तक सुनाई दे रही है सबको?" अशोक गुरु जी ने पूछा.
"हाँ सर" ढेर सारी आवाज़ एक साथ आई.
"ठीक है...मैं ये माईक हटा देता हूँ फ़िर...ये हल्ला बहुत करता है." कहकर गुरु जी ने चपरासी से माईक हटवा दिया.
शुरूआती सम्बोधनों और औपचारिकताओं के बाद गुरु जी ने कहा...
"मेरा पत्रकार बन्धुओं से आग्रह है कि वो पहले इस छोटे से सत्र को पूरा सुन लें...उसके बाद भी अगर उनका कोई प्रश्न अनुत्तरित रह गया हो, तो, अलग से समय ले सकते हैं."
थोड़ा गला ठीक करके गुरु जी ने कहना शुरू किया "इसके पहले कि ढेर सारी बातें हों, मैं आप लोगों को एक रात की घटना सुनाता हूँ...तीन साल पहले की बात है. जाड़े की रात थी, और मैं ट्रेन से कहीं से आ रहा था. आपको तो पता ही है, हमारे यहाँ कितनी भीड़ होती है स्टेशन पे...और जाड़े की रात हो तो पूछना ही क्या...है ना ?"
"हा-हा-हा-हा..." हाल में हँसी तैर गई.
"तो कुल मिला के दो-एक लोग ही थे स्टेशन पे. मैं स्टेशन से बाहर आया. अभी रिक्शा ख़ोज ही रहा था, कि एक लड़का मेरे पास आया. उसने झुक के मेरा पैर छुआ और बोला - लाइए गुरु जी अपना सामान मुझे दीजिए. अब मैं बड़ा हैरान हुआ कि भाई रात के डेढ़ बजे ऐसे पाले में...ये कौन है..? दिमाग में पचासों सवाल. मैंने भी सोचा कि है ही क्या मेरे पास कि बेवजह परेशान रहूँ? मैंने भी दे दिया कि लो भाई. फ़िर उसने मुझे एक रिक्शे पे बिठाया और ख़ुद जब रिक्शे वाले की जगह बैठ के रिक्शा ले के चल पड़ा तो मैं हडबडाया...
पूछा - अरे भाई...ये किसका रिक्शा उठा के चल दिए तुम? और रिक्शा वाला कहाँ है?
वो मुस्कुरा के बोला - गुरु जी मेरा ही रिक्शा है ये.
मैंने पूछा - तुम रिक्शा चलाते हो?
उसने कहा - जी गुरु जी.
मैंने पूछा - और मुझे कैसे जानते हो?
तब उसने कहा - गुरु जी आपकी इतिहास की फस्ट ईयर की क्लास में हूँ मैं. मुझे तो एक बारकी यकीन ही नहीं हुआ कि ये सच है.
फ़िर मैंने उससे पूछा - कभी क्लास भी आते हो?
उसने कहा - जी गुरु जी रोज़ आता हूँ.
अब मैं हैरान कि ये रोज़ क्लास भी करता है, रोज़ रिक्शा भी चलाता है. मैंने सोचा ये झूठ बोल रहा है.
मैंने फ़िर पूछा - परसों भी आए थे?
उसने कहा - जी गुरु जी.
मैंने चट से पूछा - अच्छा तो बताओ मैंने क्या पढ़ाया था?
उसके बाद जो उसने कहा उस उत्तर ने मुझे चौंका दिया.
उसने कहा - गुरु जी आप उत्तर वैदिक काल के ऐतिहासिक स्रोतों की चर्चा पर ही रुक गए थे, वहीँ से कल की क्लास में पढ़ाना है.
मैं "हूँ" बोल के सोचने लगा कि जिस लड़के ने मेरे पढ़ाने से पहले ही प्राचीन भारतीय इतिहास का काल विभाजन पढ़ लिया हो उससे मैं और क्या पूछूँ !
खैर मेरी जिज्ञासा बढ़ी और मैंने उससे पूछा - भाई एक बात बताओ, तुम रोज़ रिक्शा चलाते हो?
वो बोला - जी गुरु जी.
मैंने पूछा - रोज़ रात में?
उसने कहा - जी गुरु जी.
फ़िर तुम सोते कब हो? - मैंने पूछा.
उसने कहा - सो कर ही आ रहा हूँ गुरु जी. दोपहर तीन बजे जब कॉलेज ख़त्म हो जाता है तो घर जाकर सो जाता हूँ, फ़िर शाम को साढ़े सात बजे उठता हूँ और सत्तू पी के स्टेशन आ जाता हूँ, क्यूँकि शाम वाली सारी गाड़ियों का वक़्त हो जाता है. फ़िर नौ-साढ़े नौ तक वापस चला जाता हूँ, और खाना खा के सो जाता हूँ. फ़िर एक-डेढ़ बजे तक वापस आ जाता हूँ और अभी आने वाली एक-दो ट्रेन निपटा के वापस घर चला जाता हूँ.
मैं अवाक रह गया.
मैंने पूछा - फ़िर तुम पढ़ते कब हो?
वो बोला - अभी की शिफ्ट निपटा के तीन बजे तक मैं घर चला जाऊँगा, फ़िर सुबह सात-आठ बजे तक पढूँगा. फ़िर खाना खा के नौ-दस बजे तक कॉलेज.
मेरा इतना कहकर चुप हो जाना ही पर्याप्त है, पर नहीं, क्यूँकि असल बात अब शुरू होती है. मैंने घर पहुँचकर जब उसे पैसा देना चाहा तो उसने मना कर दिया.
मैं समझता हूँ, क्यूँकि मैं भी अपने गुरु जी से नहीं ले पाता. पर उसने मुझसे जो माँगा, वो मैंने भी अपने गुरु जी से कभी नहीं माँगा.
उसने कहा - गुरु जी...लाईब्रेरी के इस्तेमाल के लिए हमारी क्लास को सोमवार का दिन नियत है, और लाइब्रेरी खुलने का समय एक से तीन बजे तक है, जिस समय हम लोगों की क्लास चलती रहती है...और किताबों की संख्या भी कम है. जिससे बड़ी समस्या होती है. अगर आप कहेंगे तो लाइब्रेरी का समय थोड़ा ठीक हो जाएगा. इससे बड़ी मदद हो जाएगी, गुरु जी.
मैंने कभी सोचा ही नहीं था इस पर. आज जो आप लोग हफ्ते के सातो दिन लाइब्रेरी सुविधा का इस्तेमाल कर रहे हैं, ये प्रेरणा भी उसी की थी और कर्मचारियों की कमी से नपटने का ये अनोखा तरीका, कि, कॉलेज में ही इसके लिए एक स्वयंसेवी समूह की स्थापना की जाय, ये विचार भी उसी का था."

गुरु जी कुछ क्षण शान्त हो गए फ़िर कुछ याद करते हुए बोले - "मैं कभी I.C.S. में चयनित हुआ था. वही जिसे आप सभी आज I.A.S. के नाम से जानते हैं. पर मुझे अन्तिम चयन से पहले इसलिए छांट दिया गया, क्यूँकि मुझे घुड़सवारी नहीं आती थी. फ़िर मैंने ये क्षेत्र चुना, और मैंने ढ़ेरों ऐसे शिक्षक बनाए जिन्होंने देश का भविष्य बनाया और सैंकड़ों I.A.S. देश को दिए. आपके प्रिंसिपल साहब भी मेरे ही एक होनहार शिष्य रहे हैं. एक ज़माने से मैंने किसी बच्चे की व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी नहीं थी. पर उस रात ने मुझे ये हीरा दे दिया. मैंने कभी भी इसे कुछ अलग नहीं पढ़ाया. मैंने इसे वही पढ़ाया जो तुम सब को पढ़ाया. तुमने कभी कुछ पूछा नहीं और मैंने बताया नहीं. इसने पूछा भी, मैंने बताया भी. बस यही फ़र्क रह गया. मैंने इसमें कुछ बहुत ही अच्छे प्रशासकीय गुण देखे और इसे I.A.S. के लिए तैयार करना शुरू कर दिया. आज परिणाम आपके सामने है.

समस्या ये नहीं है कि आज समय बदल गया है या पहले का समय ऐसा था या वैसा था. हर दौर की अपनी कुछ सच्चाई, अपनी कुछ मजबूरियाँ और अपनी ही चुनौतियाँ होती हैं. आप पहले के वक़्त में नहीं थे. उसे हमने अपने तरीक़े से जिया और उससे अपनी तरह से निपटे. हम कल नहीं रहेंगे. कल तुम्हारा है. इसे अपनी तरह से निपटो. आदर्शों और प्रतिमानों की आवश्यकता की बातें सब बेमानी हैं. जिन आदर्शों की बातें की जाती हैं, उनके सामने कौन से आदर्श थे...और उनके सामने...और उनके भी सामने? तो सच्चाई यही है, कि, जब भीतर आग लगी होगी तो तुम पानी ख़ुद ही ख़ोज लोगे.

"...चलो ये सब बातें तो हमारे-तुम्हारे बीच क्लास में भी हो जाएँगी. आज उसका दिन है...उसे ही सुनो..." कह कर जैसे ही अशोक गुरु जी ने उसका नाम पुकारा हाल तालियों की ज़बरदस्त तड़तड़ाहट से गूँज उठा. वो मुस्कुराता हुआ उठा. गुरु जी के पैर छुए, और सामने आकर खड़ा हो गया. बार-बार कुछ बोलने को होता और फ़िर सबकी ओर मुस्कुराता हुआ देखकर शर्माकर वापस गुरु जी की ओर देखने लगता...आख़िर तालियाँ रुकें तब ना !

- अजय आनन्द

Via : The Weekend






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